सितम्बर 2020 में उत्तर प्रदेश का हाथरस ज़िला उस वक़्त सुर्ख़ियों में आया जब एक 19 वर्षीय दलित महिला की कथित सामूहिक बलात्कार और मारपीट की वजह से मौत हो गई और उनके शव को प्रशासन ने रात के अँधेरे में बिना परिवार को सूचित किए जला दिया.
हादसे के क़रीब डेढ़ साल बाद जहाँ अभियुक्तों के ख़िलाफ़ मुक़दमा अभी भी अदालत में चल रहा है वहीं पीड़िता का परिवार अपने ही घर में कैदियों की तरह ज़िन्दगी बिताने को मजबूर है.
गाँव में तथाकथित ऊंची जातियों का दबदबा है और पीड़ित परिवार के लिए यहाँ रहना एक चुनौती बन गया है. उत्तर प्रदेश विधान सभा के तीसरे चरण में हाथरस में 20 फ़रवरी को मतदान होना है और इस मामले का ज़िक्र चुनाव प्रचार में भी हो रहा है.
बीबीसी ने पीड़ित परिवार के सदस्यों से बूलगढ़ी गाँव में मुलाक़ात की और ये समझने की कोशिश की कि वो किस हाल में जी रहे हैं. इस परिवार तक पहुंचना आसान नहीं है. परिवार को सुरक्षा देने के लिए उनके घर पर केंद्रीय रिज़र्व पुलिस फ़ोर्स (सीआरपीएफ) का पहरा लगा है और बिना सीआरपीएफ़ इजाज़त के न घर के अंदर कोई जा सकता है और न घर से बाहर. पीड़िता के पिता कहते हैं, “मुश्किल तो है ही. इससे ज़्यादा मुश्किल और क्या हो सकती है कि हम लोग अंदर हैं, सुरक्षा में हैं. अपनी इच्छा के अनुसार कहीं जा भी नहीं सकते. तब यहाँ का माहौल आप देख रहे थे. अगर ये सुरक्षा नहीं होती तो हम लोग भी नहीं रहते इस गाँव में.”
पीड़िता की माँ कहती हैं कि एक तरह से पिछले डेढ़ साल से वो जेल में ही रह रहे हैं. साथ ही साथ उन्हें ये डर भी सताता है कि सीआरपीएफ़ हटने के बाद क्या होगा. वे कहती हैं, “अभी तो सीआरपीएफ़ के लोगों की तैनाती की वजह से कोई डर नहीं है. अगर ये लोग चले गए तो हम कैसे रहेंगे.”
पीड़िता की माँ के लिए अपनी बेटी के बारे में बात करना एक ज़ख्म को कुरेदने जैसा है. अपनी मृत बेटी के बारे में बात करते वक़्त वो अपने आँसू रोक नहीं पाती. वे कहती हैं, “हमारी बेटी का तो मुंह तक नहीं दिखाया. हमारी झोली में भीख ही डाल देते. आधी रात में जला आए.” पीड़िता की माँ कहती हैं कि उन्हें उम्मीद है कि उन्हें इंसाफ़ मिलेगा. वे कहती हैं, “याद तो बहुत आती है. सबकी बेटियों को आस पास घूमते देखती हूँ. आज दुनिया में मेरी ही बेटी नहीं है.”