Explained Women’s Reservation Bill 2023: 27 साल से पास होने का इंतज़ार कर रहा महिला आरक्षण बिल, एकबार फिर लोकसभा में पेश किया गया। 1996 में पहली बार देवगौड़ा सरकार में इसे पेश किया गया। उसके बाद वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों के दौरान भी कोशिश हुई पर ये कभी पास नहीं हो पाया। क्या विरोध रहा इस बिल को लेकर? क्या इस बार ये पास हो पाएगा? इस पर चर्चा के लिए हमारे साथ हैं लखनऊ यूनिवर्सिटी की पूर्व वीसी और नारीवादी राजनीतिक कार्यकर्ता रूप रेखा वर्मा जी।
Explained Women’s Reservation Bill 2023: 27 साल से पास होने का इंतज़ार कर रहा महिला आरक्षण बिल, एकबार फिर लोकसभा में पेश किया गया। 1996 में पहली बार देवगौड़ा सरकार में इसे पेश किया गया। उसके बाद वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों के दौरान भी कोशिश हुई पर ये कभी पास नहीं हो पाया। क्या विरोध रहा इस बिल को लेकर? क्या इस बार ये पास हो पाएगा? इस पर चर्चा के लिए हमारे साथ हैं लखनऊ यूनिवर्सिटी की पूर्व वीसी और नारीवादी राजनीतिक कार्यकर्ता रूप रेखा वर्मा जी।
एक तो बात ये है कि 33 पर्सेंट का फॉर्म्युला कहां से आया है और इस बिल के बारे में जब-जब बात हुई है, तो तमाम महिला कार्यकर्ताओं ने ये सवाल उठाया है कि अगर हम आधी जनसंख्या है, जो माना जाता है। हालांकि कहीं-कहीं पर प्रतिशत कम है। तो 33 पर्सेंट का मतलब क्या माना जाता है? अगर स्त्री-पुरुष की बराबर की भागीदारी का लक्ष्य है। तो ये अपने आपमें समस्यात्मक बात रही है कि हमेशा हम 33 फीसदी मांग करते हैं और फिर उसी रूप में बिल बार-बार आता है। ये बहुत बड़ा सवाल है समाज के सामने, अगर स्त्रियों की आबादी आधी मानी जाती है और आधी आबादी करके उनको एड्रेस भी किया जाता है, तो फिर ये 33 पर्सेंट का फॉर्म्युला क्यों आता है सामने? तो अपने आपमें ये कोई आदर्श स्थिति मुझे नहीं लगती है। अगर रिजर्वेशन से कुछ फायदा होने वाला है तो फिर हमें 50 प्रतिशत चाहिए। ये मेरा कहना है। हालांकि, उसमें एक अगर जरूर मैंने लगाया है क्योंकि मैं रिजर्वेशन को कोई बहुत आदर्श स्थिति नहीं मानती हूं।
जी, 33 फीसदी के लिए ही 27 साल से ये बिल अटका हुआ है। अगर आप कह रही हैं कि 50 फीसदी होना चाहिए तो शायद और मुश्किल हो। कई बार ये पेश हुआ संसद में लेकिन कभी पास नहीं हो पाया। तो इसे लेकर क्या प्रमुख विरोध था राजनीतिक दलों का?
देखिए, विरोध तरह-तरह के रहे हैं। हमारे यहां मुश्किल ये है, चाहें एक पार्टी पर बराबर कुनबे या परिवारवाद का आरोप लगता रहता है, पर गौर करें तो हर पार्टी में आपको परिवारवाद रचा-बसा मिलेगा। जहां जो पार्टी हो। इस समय के लिए किसी भी पार्टी में देख लीजिए, हर बड़े नेता का बेटा, पोता किसी न किसी कुर्सी पर कब्जा जमाए हुए है और सिर्फ इसलिए कि उस परिवार से आता है। उसकी अपनी क्रेडेंशियल कोई भी नहीं है। इसी तरह बाकी जितनी पार्टियां हैं। जब इस तरह के रिजर्वेशन हो जाएंगे, तो एक तो वहां कहीं चोट लगने वाली है जो बड़ी आसानी से सिर्फ फलां के बेटे, या फलां के चाचा या फलां की बीबी होने के नाते बन जाते हैं उस पर फर्क आने वाला है। इसलिए ऊपर से सब कहते हैं कि हम सहमत हैं, हम सपोर्ट करते हैं लेकिन अंदर से कोई न कोई नुक्ता निकालकर इसे पास नहीं होने देते हैं। और दूसरी राजनीति जो इसके पीछे है वो पैसा खर्च करके इलेक्शन होने वाली, तो उनको लगता है कि फिर मामूली इंसान भी चले आएंगे अगर रिजर्वेशन हो गया तो। मुझे लगता है कि यही कुछ कारण है, ऊपर से हां कहते हुए दिल में ना रहती रही है ज्यादातर लोगों के बीच में।
संसद और विधानसभा में महिलाओं के लिए सीटें रिजर्व करने की जरूरत महसूस क्यों की गई?
जरूरत महसूस इसलिए की गई कि पारंपरिक रूप से स्त्रियों के कुछ बंधे हुए काम प्राइमरली माने गए थे, मुख्य रूप से माना गया था। ये भी माना गया कि सार्वजनिक जगहों के जो काम हैं, उसमें औरतों को न तो इतनी अक्ल होती है, न इतना अनुभव होता है, न ही प्रकृति ने उनको इस प्रकार बनाया है कि वो अपनी कठिनाइयों को झेल सकें। ये पारंपरिक सोच है, खुलके कोई नहीं मानेगा कि हम इस सोच के अलम-बरदार हैं। लेकिन दिल में अभी भी है उस प्रकार की सोच कि औरतों को बच्चे भी पैदा करना होता है, घर-बार भी संभालना होता है, तो फिर वो राजनीति में आकर के कितना काम कर पाएंगी, कितनी समझ उनको होगी, इसलिए यह सोचा गया कि औरतों ने ये सिद्ध बार-बार किया है कि वो भी सारी चीजें कर सकती हैं, अच्छी पॉलिटिक्स कर सकती हैं तो इसलिए यह मांग उठी। साधारण रूप में जो उनको लेकर पूर्व मान्यताएं रही हैं, उनकी वजह से हमें आगे बढ़ने नहीं दिया जाता है, तो रिजर्व कर दो हम भी राजनीतिक रूप से योगदान देना चाहते हैं। यह एक वजह थी। यह मांग स्त्रियों की तरफ से ही उठी। कुछ हिमायती पुरुष साथियों ने भी जो बराबरी के हिमायती हैं। लेकिन रिजर्वेशन एक सॉल्यूशन है, उसके बारे में मेरे कुछ सवाल हैं। कितना सही रास्ता है इसके लिए, जब वक्त आएगा तो मैं बताऊंगी।
जी, आपको क्यों लगता है कि रिजर्वेशन की जरूरत नहीं। फिर स्थिति में बदलाव कैसे आ सकता है। आज की स्थिति की बात करें, तो देश के 19 राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 फीसदी से भी कम है। हिमाचल प्रदेश और पुडुचेरी में तो सिर्फ एक-एक महिला विधायक हैं। तो आरक्षण के बाद महिलाओं की संख्या बढ़ने से आपको नहीं लगता कि फायदा होगा। उनकी आवाज ज्यादा सुनी जाएगी?
देखिए, मुझे ये लगता है कि जैसे स्कूलों में, कॉलेजों में और कुछ जॉब्स में अगर सामान्य रूप से दुर्भावनाएं हैं, या पूर्व मान्यताएं गलत प्रकार की हैं और इसलिए योग्य होते हुए भी उनको जगह नहीं मिलती है। एडमिशन न मिले या कोई टीचर न मिले, बाद में उनको कोई नौकरी न मिले, तब तो लगता है कि उनके पास पूरी वो काबिलियत है, बराबरी से प्रतिस्पर्धा कर पाएं, तो वो बात समझ में आती है लेकिन राजनीति में कुछ दूसरी भी शर्तें हैं। अगर हमें अच्छे राजनीतिज्ञ चाहिए और वो शर्त ये है कि मैं पुरुष और स्त्री दोनों के बारे में कह रही हूं कि आदर्श रूप में, जो हमलोगों का सपना है, उस हिसाब से अगर लोकतंत्र को जिंदा रखना है। अगर हमें वाकई एक ऐसी सरकार चाहिए, सरकार न भी हो, विपक्ष भी हमें ऐसा चाहिए जो देश को समझते हैं।
देश में जो तरह-तरह की सामाजिक विविधताएं हैं उनकी अच्छी जानकारी हो और वो एक संवेदनात्मक तरीके से उन विभिन्नताओं को समझते हों। जनता की जरूरतों को समझते हों। और इसके अलावा वो इस बात के प्रतिबद्ध हों कि हम जनता की खुशहाली के लिए ही काम करेंगे। तो ये पुरुष और स्त्री दोनों के लिए है कि अब जो हम देखते हैं पार्लियामेंट में और असेंबली में कि किस तरह के लोग आ रहे हैं। जो स्त्रियां भी आ रही हैं उनमें कितना प्रतिशत है जो इन शर्तों को पूरा करता है। जो देश को समझते हों, समाज को समझते हों, उनका हितकारी रूप क्या हो सकता है, या वो केवल पार्टी की प्रतिबद्धता से बोलते हैं। इधर तो हमने बड़े कुरूप रूप हमने देखे हैं, जहां स्त्रियां भी हैं।
हमें याद है, गुजरात में लूट-मार करने में, खास धर्म की स्त्रियों का रेप कराने में बहुत सी स्त्रियों का भी हाथ था। और उसी तरीके से आप देखिए कि पार्लियामेंट और असेंबली में भी बिल्किस बानो केस की तरह मणिपुर में जहां औरतों को नंगी करके घुमाई गई। और जगह-जगह अत्याचार हुए। यूपी में दर्जनों घटनाएं हैं जिसमें कि औरतों का न केवल यौन अपराध हुए उनके ऊपर बल्कि अकल्पनीय वहशियत उनके साथ की गई और बहुत बार सरकार की इसमें असफलताएं रहीं और गलत तरीके से उन्होंने हैंडल किया। वहां पर इक्का-दुक्का ही जो बैठी हों, अभी सही प्रतिशत उनका नहीं है। उनमें से कितने बोले, कितने नहीं बोले। अगर इस प्रकार की मानसिकता की स्त्रियां ही रिजर्वेशन से आने वाली हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है, हमारा लोकतंत्र डूबेगा ही। एंटी पीपल जमावड़ा, असेंबलीज और पार्लियामेंट में रहेगा ही। तो मुझे ये लगता है कि रिजर्वेशन एक उथले सतह की मांग है। नंबर के हिसाब से हम कहेंगे देखो हमारा इतना आंकड़ा बढ़ गया औरतों का, पर वो समाज की समानता रिफ्लेक्ट नहीं करेगा। और खासतौर से तब जबकि चुनाव हमारे ढेर सारा पैसा मांगते हैं। चुनावी प्रक्रिया में खास बदलाव होना जरूरी है।
देश में जगह-जगह जितने भी समतावादी आंदोलन हैं और जनता के हित के लिए आंदोलन हैं, चाहे वो जंगल-जमीन का सवाल हो, चाहे पानी का सवाल हो, चाहे वो स्त्रियों के अधिकार का सवाल हो, उनके ऊपर होने वाली हिंसा का आंदोलन हो, सबमें औरतें लीड कर रही हैं। पर्यावरण में औरतें लीड कर रही हैं। लेकिन उसके बावजूद वो इलेक्शन में क्यों नहीं खड़ी हो पातीं। इरोम शर्मिला जैसे लोग, मेधा पाटेकर जैसे लोग कैसे बहुत बुरी तरह चुनाव हारते हैं। तो सवाल ये है कि अगर हमें उसी तरह के लोग चाहिए, औरतें जो थोड़ी ही भले आ रही हों, अगर मुंह बंद रखनेवाली आ रही हैं, अगर पार्टी के हिसाब से लाइन लेने वाली आ रही हों, सहानुभूति विहीन आ रही हैं तो हमें उस रिजर्वेशन से कोई फायदा नहीं। उस रिजर्वेशन से होना क्या है।
जी, और आपको क्या लगता है कि इतने सालों में राजनीतिक दलों का विचार कुछ बदला होगा क्या? और अब कुछ पॉजिटिव तरीके से देखने लगे हैं? क्या सरकार के लिए इस बार ये बिल पास कराना आसान होगा सभी सदनों से?
मुझे लगता है आसान होगा। एक तो ये है कि जब ये मीटिंग बुलाई गई, थोड़ा सा कम नोटिस पर और बड़ा सस्पेंस रखके कि क्या होने वाला है। बहुत दिन तक तो यही पता चला कि क्या होने वाला है। आपको याद होगा कि इंडिया अलायंस की तरफ से डिमांड आई थी कि आप सत्र बुला रहे हैं तो रिजर्वेशन बिल लाइए। एक तो ये है, चूंकि अपोजिशन की भी मांग है। चुनावी वक्त है, कोई माथे पर कलंक नहीं लगाना चाहेगा। कोई भी रिकॉर्ड पेश नहीं करना चाहेगा कि इन्होंने विरोध किया था इसका। अब वो जमाना नहीं है, देवी प्रसाद या इन लोगों ने शायद पहले इसकी मुखालफत की थी। अब तो सभी हामी भरेंगे, चाहे दिल में न हो। अब लोकतंत्र करीब-करीब खत्म है और जिस तरीके से हम छद्म लोकतंत्र में रह रहे हैं, चुनावी शर्तें ज्यादा बिगड़ चुकी हैं, उस वातावरण में अब नारेबाजी ज्यादा काम करती है, छवियां ज्यादा काम करती हैं, उनका काम, काम नहीं करता है। और उनके विचार काम नहीं करते हैं।
जबकि विचार और काम से ही तय होना चाहिए कि हमारा प्रतिनिधि कौन होगा- लोकतंत्र का जो रक्षक होगा, वही होगा। जो जान देने के लिए तैयार होगा लोकतंत्र के लिए, वही होगा। अब हम ये देख रहे हैं कि जो लोकतंत्र के लिए बोलता है, उसकी जान लेने के लिए तैयार रहते हैं। ऐसी हालत में हां तो सब कहेंगे, अपने माथे पे तो कोई कलंक नहीं लेना चाहेगा। ये आगे रीपिट होगा, देखिए इन्होंने हमें सपोर्ट किया। लेकिन मुझे ये लगता है कि पहली प्राथमिकता देनी चाहिए कि कैसे हम इलेक्शन की प्रक्रिया को ऐसा बनाएं, बिलकुल वित्त विहीन।
बहुत ही थोड़ा पैसा खर्च हो, जिससे कि आम औरतें जो कि समाज की बेहतरी के लिए जूझी हुई हैं, वो भी खड़े होने की हिम्मत कर सकें। पैसे की भी और उसमें जो तमाम तरह की सोशल मीडिया और लोगों ने आईडी बना रखे हैं, उनमें जो भद्दापन होता है, वो भद्दापन स्टैंड करने की चुनौती औरतों के सामने न हो क्योंकि इतना हम भी, समानता में विश्वास करने वाले लोग भी ये बात देख रहे हैं कि आदमी फिर भी थोड़ा कम डरता है भद्देपन से, औरतें ज्यादा डरती हैं। क्योंकि अभी मैं पब्लिक स्पेस में हूं और उनका काम उतना ज्यादा पुराना नहीं है। और अभी भी परिवार में उनकी प्राथमिकता है, तो वो बहुत जल्दी बिदक जाती हैं, अगर उनके बारे में कोई भद्दी चीजें आएं।
तो एक इस पर कंट्रोल की बात हो कि सख्त बैन हो इस पर, सजा हो, जल्दी-जल्दी फैसले हों। छह साल बाद न हों। और इसको बिलकुल सस्ता बना दिया जाए। वो सारी औरतें जो कि लगी हुई हैं समाज को बेहतर बनाने के लिए, सोच भी नहीं पाती हैं इलेक्शन के लिए। रिजर्वेशन हो अगर और इस तरही की चुनावी प्रक्रिया के सुधार के साथ नहीं हो, तो फायदा कुछ नहीं होना है। बेटियां और बहुएं आएंगी, जिन कुर्सियों पर पुरुषों ने कब्जा कर रखे हैं, शासन उन्हीं का रहेगा। हम लगातार देख रहे हैं पंचायत के चुनाव में क्या होता है। यहां तक कि कुछ गांवों में जो बैनर लगते हैं पब्लिसिटी के, उन तक में औरत का चित्र नहीं होता है, पति का होता है।
लड़ रही हैं विमला देवी लेकिन तस्वीर, अपील और वोट की मांग हो रही है उनके पति के नाम से। वो पति सरपंच साहब, ये केवल कहने की बात नहीं है, हकीकत है अभी भी हमारे गांवों और कस्बों में। और ये चीज केवल एक दिखावे के लिए बन जाती है और पूरा सिस्टम ध्वस्त हो जाता है। इसलिए पहली शर्त है इलेक्शन में सुधार कीजिए और उससे भी पहली शर्त है कि इलेक्शन कमिश्नर तटस्थ वाला अपॉइंट करने दीजिए। उसमें कहीं अपोजिशन और सुप्रीम कोर्ट को भी शामिल कर लीजिए। अब तक जो ड्राफ्ट इलेक्शन कमिश्नर अपॉइंट करने का, उसमें तो सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को भी हटाने का भी प्रस्ताव है। जब पार्टी डोमिनेटेड चीफ इलेक्शन कमिश्नर होगा, तो फिर इस देश में इलेक्शन का मतलब क्या होगा। ज्यादा जरूरी चीजें वो हैं, मेरा ये कहना है।